Harishankar Shahi ✍️ , (यहां केवल कॉपी किया गया है)

इस देश का सबसे बड़ा चुटकुला सामाजिक न्याय है जिस पर हंसी के बजाए दर्द होता है. इस पर लिखना बिल्कुल बेकार सा है।
कल लालू प्रसाद यादव के जन्मदिवस पर सामाजिक न्याय दिवस की पींपड़ी बजाई जा रही थी, और यह बजाने वाले कौन हैं. वही जो उनकी जाति के हैं और जो अपनी जाति को रिप्लेसमेंट करके सबसे ऊँची साबित कर दें, इसके लिए को लालू प्रसाद यादव में देवता देखते हैं।
अगर सामाजिक न्याय को देखें तो कैसा न्याय, मतलब लालू ने ख़ूब कमाया और लड़के हवाई जहाज में बर्थडे मनाते हैं और अहीर राइटरों की जाति के हैं तो वह सामाजिक न्याय के देवता हैं।
क्या यह सामाजिक न्याय चंदू कुशवाहा को न्याय दे पाया, आखिर मृत्युंजय यादव की हिम्मत कैसे पड़ी की वह किसी कलेक्टर की बीबी के साथ महीनों बलात्कार करे।
सामाजिक न्याय के नाम पर अपनी जाति के अहंकार को सहलाना ही अहीर संपादक और अहीर विचारकों का मुख्य लक्ष्य है, कहने को बुद्धिजीवी बनने का सपना और रह गए वहीं कि हम महान, हमारी जाति महान।
अगर ऐसा नहीं है तो कर्पूरी ठाकुर क्यों नहीं सामाजिक न्याय के प्रतीक हो सकते हैं. आख़िर कर्पूरी ठाकुर से ज्यादा समाजवाद तो शायद ही भारत में किसी ने सत्ता के शिखर पर रहते हुए जिया हो.
तो कर्पूरी ठाकुर का नाम क्यों नहीं लिया जाता है, और उनके वंश वाले क्यों नहीं तेजस्वी और तेज प्रताप जैसे प्रतीक बनते हैं।
अपनी जाति को महान साबित करने के लिए भगवान कृष्ण को अहीर बताया जाता है. अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में समाजवाद का चेहरा ओढ़े अहीर जाति के महाराजा, अखिलेश यादव, वृक्ष रोपण करते हुए पारिजात का वृक्ष रोप रहे थे यानी इनको भगवान बनना है।
लेकिन इनकी जाति और इनके समर्थक कितनी गालियाँ बकते रहते हैं, हर किसी को इन्हें अपने तलवे के नीचे चाहिए. लखनऊ में क्या समाजवादी दल्लाकारिता दलाली चलती थी कि एक बिल्लीबाज़ सबको बिल्ली का सजदा करवाता था।
सामाजिक न्याय या जो भी तमाशा है इसमें पिछड़ा होने का सुख भी चाहिए और भगवान का वंशज भी बनना है. अगर कृष्ण के वंशज हैं तो फिर ब्राह्मण को गाली क्यों बकते हैं, आखिर कृष्ण का मित्र सुदामा और गुरू सांदीपनी किस जाती के थे।
अहीर विचारकों का झुंड जेएनयू में महिषासुर दिवस मनाता था उसमें भी हिंदु धर्म पर सवाल कम महिषासुर को अहीर साबित करके देवी दुर्गा को खारिज़ करना था।यानी कुल मिलाकर यह बताना की दुनिया सिर्फ अहीरों की है, लेकिन लालच इतना हल्का है कि राक्षस को अहीर बताते-बताते सत्ता मिली तो सीधे भगवान कृष्ण पर कब्ज़ा करने लगे और महिषासुर छूट गए.
सामाजिक न्याय दोनों हाथ में लड्डू को लेकर चलता है, यानी हम भगवान भी थे और हमारा शोषण भी हुआ था हम पिछड़े भी हैं।
इस चालाकी से जहाँ वह ब्राह्मणवाद के नाम पर ब्राह्मणों को गाली बकते हैं, लेकिन अपनी जाति जुगुप्सा नहीं छिपा पाते हैं।
ब्राह्मण इसलिए भी श्रेष्ठ है कि वह ब्राह्मणवाद के समस्याओं को ख़ुद बुरा-भला कह सकता है. लेकिन यह अपनी जाति के दीवाने, पिछड़ों और दलितों के नाम पर अपनी जाति के नेता को मसीहा थोपने वाले. चंदू और सीमा और एमएलए अजित सरकार जैसों का न्याय पचा जाते हैं. जो सवर्ण भी नहीं थे.
#अहीर_यादव_नहीं_हैं