Historical Doublespeak (इतिहास लेखन में राजपूतों के साथ दोहरा व्यवहार)
Ajitesh Narayan Kakan ✍️

ऐसे समय में जब अशरफ मुसलमानों और ब्राह्मण-बनिया-मराठा लाॅबी ने राजपूतों को युद्ध हारने में विशेषज्ञ, मुगलों के गुलाम और अंग्रेजों का कभी प्रतिरोध न करने वालों के अलावा हमारी इज्जत, क्षत्राणियों को सिर्फ मुगलों के हरम का हिस्सा जनरलाइज करने में पूरा जोर लगा दिया है, अब जरूरत हमें इस डिसकोर्स को काटने के लिए उभरती एकेडमिया में अपनी जगह पुख्ता करने की है I
आपको एक उदाहरण देते हैं. मध्यकाल में पठानों ने महज सत्तर साल के अलावा भारत ही क्या, यहां तक कि अपने वतन अफगानिस्तान में भी राज नहीं किया.
खतौली के युद्ध में राणा सांगा से हारने के बाद भागते ही पहले अफगान वंश यानी लोदियों में सुल्तान इब्राहिम लोदी के चाचा दौलत खां लोदी ने फरगना (पहले भारत के यू-ची कबीले यानी कुषाण शासकों के राज्य का हिस्सा था) के ‘उज्बेक’ बाबर को भारत पर हमले का न्यौता दिया. (बाबरनामा में गजनी से सिंध के पहले गांव भेरा से घुसने से पहले ही बाबर इसका बात का जिक्र करता है).
दूसरा वंश शेरशाह का रहा जो शुरुआत में सुल्तान बनने से पहले बिहार के सूबेदार के अलावा गाजीपुर के नूहानी और मियां काला पहाड़, चुनार की लाड मलिका जैसी विधवाओं से शादी (so-called संघर्ष?😅) के बाद मिली दौलत पर खड़ा हुआ और बारह साल में खत्म हो गया. जौनपुर के शर्की और दूसरे (उड़ीसा और बंगाली अमीर) तो एक झटके में खत्म हो गए. मुगलों से लेकर दुर्रानियों/अंग्रेजों तक शादी-निकाह जैसी फाॅर्मेलिटी के बिना ही इनकी औरतों की आमद पर अंग्रेजों ने तो मुहावरा गढ़ दिया –
A Kabul wife under burka cover,
Was never known without a lover.
अब सवाल यह है कि पठान फिर किस बहादुरी के लिए से जाने जाते हैं? खैबर से लेकर काबुल तक मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और बाद में जाटों तक ने इन्हें रगेदा. उल्टे यह बीकानेर के ठीक दरवाजे पर डेरा इस्माइल खान से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाए.
पठानों की मजबूती प्रतिरोध (उपद्रव) में रही. वहीं इनकी जगह देखें तो राजपूतों ने स्वायत्तता से समझौता नहीं किया और राजपूताने के प्रतिरोध के साक्षी मुगल रिकाॅर्ड में बार-बार राजपूत रियासतों को विद्रोह के बाद खालिसा (इस्लामिक सरकारी जमीन) घोषित कर संपत्तियों की जब्ती (confiscation) और मंदिरों को तोड़ा जाना है.
लेकिन यहीं जब इतिहास की बात आती है तो स्वाभिमान और वीरता के लिए जानी जाने वाली दोनों मार्शल रेस के लिए अप्रोच जुदा हो जाते हैं. आप इतिहास लेखन में राजपूतों के साथ किए गए क्रूर व्यव्हार की तुलना को दूसरे के दर्ज किए उनके असली इतिहास से कर सकते हैं? क्या उनके विषय में कहीं इतना जजमेंटल नेरेटिव खड़ा किया गया है जहां एक रेस की वीरता मजाक बना दी जाए?
राजपूतों के विपरीत अफगान कभी जुबान और वफादारी के लिए नहीं जाने गए. जिसे शक हो वह जोनाथन ली की 1260 से लेकर आजतक का अफगान इतिहास पढ़ ले I घूसखोरी यानी पैसे लेकर चार-चार बार दो लोगों के पक्ष-विपक्ष में पाले बदलने के कारनामे पूरे खित्ते में आम मिलते हैं. वहीं राजपूतों के लिए महज नमक की कसम ही काफी होती थी, जहां फिर शासक के कहने पर भी अंत तक लड़ने के लिए मोर्चा छोड़ने से इंकार कर देते थे, ऐसे वाकये बिखरे हुए हैं.
कुंभलगढ़, जोधपुर और जैसलमेर जैसे सैंकड़ों राजपूत ठिकानों के किलों और महलों का अपना आर्किटेक्चर और अलग कल्चर रहा है. युद्ध में जौहर और शाका जैसी परंपराएं रहीं. पंजाब, कश्मीर, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, और अक्सरियत रेगिस्तान के बीच बसे होने के बाद भी ऐसे समृद्ध राज्य I जहां कभी अकाल नहीं पड़ा और वचन पर मिटने तक की वफादारी – इन सबका सारांश आज पहला पैराग्राफ बना दिया गया है.
हमारी गलती? सामूहिक प्रज्ञा और एकता के अभाव में आधे से ज्यादा भारत में फैले होने के बावजूद दिल्ली के सामने झुक गए वरना आज शायद इस तरह का अपमान नहीं झेलना पड़ता.
अंत में ~ जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि रखै करतार 🌸