Puspendra Rana ✍️

राजपूत बेहद धार्मिक और आध्यात्मिक समुदाय है। एक सैनिक जाती के लिये धार्मिक एवं आध्यात्मिक होना प्राकृतिक है क्योंकि एक कट्टर आस्थावान और सीधा सरल चित्त व्यक्ति ही युद्ध मे किसी राजा के लिये सर कटवा सकता था। ज्यादा दिमाग चलाने वाले, सैनिक कम ही बनते हैं। एक सैनिक ईमानदार होता है और उसका जीवन-मृत्यु की गुत्थी से सीधा सामना होता है, इसलिए उनका रुझान अध्यात्म में होता है। इसी कारण भारतीय संस्कृति में ज्यादातर बड़े धर्मोपदेश राजपुत्रो ने ही दिए हैं चाहे उपनिषद हो, गीता उपदेश हो, बौद्ध धर्म हो, जैन हो या फिर नाथ पंथ हो।
हजारों साल सैनिक होने कारण हुई कंडीशनिंग का परिणाम है कि अब भी राजपूत समुदाय सबसे ज्यादा धार्मिक है और अध्यात्म में अत्याधिक रुचि लेता हैं। पंडितों को भाव देने के अलावा अपनी आध्यात्मिक भूख मिटाने के लिये सबसे ज्यादा बाबाओं के चेले राजपूत ही बन रहे हैं। जिनमे कई तो भक्ति आंदोलन की पैदाइश फर्जी बाबाओं के चक्कर मे पड़े हैं जो जाती व्यवस्था खत्म करने का प्रचार करते हैं।
धर्म अध्यात्म का इतना प्रभाव है कि राजपूतो के तो सामाजिक संगठन भी शुद्ध धार्मिक संगठन बन जाते हैं। पूर्वांचल में भक्ति आंदोलन के फर्जी बाबाओं का प्रभाव चाहे इतना ना हो लेकिन वहां भी कई जगह राजपूतो की राजनीतिक और सामाजिक दिशा मठो से संचालित होती आई है। यहां तक कि कई बार तो राजपूत संगठनों के जातिगत कार्यक्रमो में भी राजनीतिक और सामाजिक चर्चा करने के बजाए धार्मिक प्रवचन और हवन कीर्तन करवा देते हैं।
इसका नुकसान यह हुआ कि राजपूत राजनीति को और सामाजिक सुधार को भी धार्मिक नजरिये से देखते हैं। धर्म का काम व्यक्तित्व विकास और मन की शांति उपलब्ध कराना होता है जबकि जातिगत संगठनों का काम समाज के संपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हितों के लिए चिंतन करना और दबाव गुट बनकर दबाव बनाना होता है। कोई व्यक्ति क्या खाता पीता है, क्या पहनता है, कैसे बोलता है इन सब पर सोचने का काम जातिगत संगठनों का नही होता। ऊपर से हजारों साल की कंडीशनिंग के कारण राजपूत समुदाय आज भी इतना सरल चित्त है कि बहुत आसानी से बेवकूफ बना लिया जाता है।
लेकिन राजपूतो की ये कमजोरी उनके लिए वरदान भी है। राजपूतो के इस स्वभाव का बहुत फायदा उठाया जा सकता है। क्योंकि धर्म मे बहुत ताकत होती है। धार्मिक और सरल चित्त लोगो को अनुयायी बनाना और उन्हें एक छड़ी से हांकना ज्यादा आसान है। धार्मिक संप्रदाय के जरिये लोगो को संगठित करना ज्यादा आसान है। धर्मांधता बेहद कमजोर और डरपोक आदमी को भी बहादुर बना देती है। सिक्ख और उससे प्रभावित डेरा सौदा, रामपाल आदि के संप्रदाय इसका उदाहरण हैं। धर्म के द्वारा बेहद अनुशासित, संगठित और निडर समुदाय का निर्माण किया जा सकता है। आप सोचिए जब कुछ लाख की following वाले छोटे छोटे धार्मिक संप्रदाय लोकतंत्र में इतनी ताकत रखते हैं तो 10 करोड़ की आबादी वाले एक संगठित और निडर समाज की कितनी ताकत होगी। वैसे भी आगे गृह युद्ध आने वाला है, उसकी तैयारी इसी तरह हो सकती है।
राजपूतो के स्वभाव के कारण ये ज्यादा मुश्किल भी नही हैं। राजपूत धार्मिक प्रचार और समाज सेवा के प्रकल्पों से बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं। जब आर्य समाज शुरू हुआ था तब सबसे पहले राजपूत ही बड़ी संख्या में उसके अनुयायी हुए थे। राजपूतो ने ही इसका जमीन पर सबसे ज्यादा प्रसार किया था हालांकि बाद में वर्णसंकरों के जुड़ने उनको जरूरत से ज्यादा प्रश्रय मिलने पर मोहभंग हो गया। आज भी समाज की मेधाशक्ति अपने समाज हित मे राजनीतिक सोच रखने की जगह सर्वसमाज सेवा या हिंदूसमाज सेवा की भावना से प्रेरित हो आरएसएस जैसे संगठनों में खपती है या फिर बाबाओं के चक्कर मे आसानी से आ जाते हैं। जब समाज के लोगो का काम बाबाओं और संप्रदायों के बिना नही चलता तो इन विजातीय संगठनों और संप्रदायों में जाने देने से बेहतर इस तरह का अपना ही संप्रदाय बना कर समाज के लोगो को संगठित किया जाए। समाज सेवा की भावना का उपयोग अपने समाज के लिये किया जाए।
लेकिन इसका मतलब ये नही की कोई आध्यात्म से अत्यधिक ओतप्रोत शांतिवादी, नरम, दब्बू, पंडा टाइप संप्रदाय को बढ़ावा दिया जाए। राजपूतो का संप्रदाय आक्रमक और राजनीतिक स्वभाव का होना चाहिए। आध्यात्म की भूख शांत करने के लिये धार्मिक आचार आडंबर वगैरह हो लेकिन उद्देश्य राजनीतिक सोच वाला जागरूक, निडर और दबंग समाज तैयार करना हो। इसमे शाक्त धर्म का सहारा ले सकते हैं। नाथ संप्रदाय से सीख ले सकते हैं। जैसा सिक्खों के गुरु गोबिंद सिंह ने किया था। एक बनियों के शांतिवादी समुदाय को सैन्य समुदाय में तब्दील करने के लिये राजपूतो को कॉपी किया और उसी शाक्त धर्म का सहारा लिया जिसके खिलाफ पहले प्रचार किया करते थे।
नोट- ये सिर्फ सुझावात्मक विचार हैं।