Pushpendra Rana writes ✍️

NOTE:- आर्टिकल का फोकस राजपूतो की राजनीतिक सोच के कारणों और इस सोच के कारण हुए प्रभावों पर है ना कि राजाओं और महाराजो पर।
राजपूत समाज की आज जो राजनीतिक चेतना का स्तर है उसके लिए सबसे ज्यादा राजे महाराजे जिम्मेदार हैं। आप सोच कर देखिए राजस्थान का कोई राजा जिसके राजस्थान के आम राजपूतो से संबंध या जुड़ाव ना के बराबर है। बल्कि वहां के ठिकानेदारों तक से उसके हित अलग हैं। जो आम राजपूतो से ज्यादा बनियो, बामनो, कायस्थों के बीच में रहा हो उसको यह एहसास होगा कि यूपी बिहार के आम राजपूत क्या हैं, कैसे हैं और कितनी संख्या में है? ऊपर से इन्हें राजा का पद सिर्फ आनुवंशिकी की वजह से मिला है, कोई और योग्यता नही है। अगर ऐसे लोग राजपूत समाज के नेता बने तो उनकी क्या विचारधारा होगी और क्या रणनीतिया बना पाएंगे राजपूत समाज के कल्याण के लिए।
यह सिर्फ एक उदाहरण है। जब से भारत में जातिगत राजनीति का दौर शुरू हुआ। जाटो में छोटूराम, देशराज, चरण सिंह, देवी लाल आदि विचारक नेता हुए, जाटवों में स्वामी अछूतानंद, मांगू राम जैसे विचारकों से लेकर कई दर्जन नेता हुए, भूमिहारों में सहजानंद सरस्वती जैसे नेता हुए। उस समय से ही राजपूतो की राजनीति पर राजे महाराजो और बड़े जमीदारों का कब्जा रहा जो दशकों तक बरकरार रहा। इस एक चीज ने राजपूतो का राजनीति में सबसे ज्यादा नुकसान किया है।
जो भाषण ये लोग अपने सीमित ज्ञान और हितों के अनुसार देते थे। वो टेप रिकॉर्डर की तरह बजता भाषण राजपूतो के दिमाग मे इस तरह बैठ गया कि इसको निकालने के लिए सालो लग जाएंगे। इन राजे महाराजो को आम राजपूत नही दिखते थे। इन्हें खुद लगता था कि राजपूतो की संख्या बहुत कम है। (कुछ समय पहले राजा दिग्विजय सिंह ने खुद बयान दिया था कि मध्यप्रदेश में राजपूत मात्र आधा % हैं)। अंग्रेजो के आने के बाद आम राजपूतो के साथ कभी उठे बैठे नही। इन्हें राजपूतो के पोलिटिकल सिस्टम का ही पता नही था। पता होता तो इतनी आसानी से कांग्रेस के सामने आत्मसमर्पण नही करते।
इनका ये ही भाषण होता था कि-
“राजपूत समाज की संख्या बहुत कम है लेकिन इसके बावजूद सर्वसमाज में राजपूतो का बहुत सम्मान है क्योंकि राजपूत सब समाजो को साथ लेकर चलते हैं। राजपूतो का काम सबकी रक्षा करना है(इससे आम राजपूतो के अवचेतन मन में भी यह घर कर गया कि राजपूत सम्पन्न और ताकतवर समुदाय है, कोई पिछड़ा पन नही)। राजपूतो को लोकतंत्र में अपना वजूद बनाए रखना है तो सर्वसमाजो को साथ लेकर चलना होगा। सबको एक जाजम पर बैठाना होगा। क्षत्रिय धर्म ये…. क्षत्रिय धर्म वो….”
पिछले 70 साल से हर राजपूत सभा, मीटिंग में ये ही भाषण हर वक्ता द्वारा टेपरिकॉर्डर की तरह बजाया जाता है। ये भाषण हर राजपूत के दिमाग की नस नस में समा गया है।
इस भाषण ने राजपूतो का इतना नुकसान किया है जिसकी कोई हद्द नही। राजपूत खुद अपनी आबादी कम मानता है। इसलिए संख्या के मुकाबले अन्याय होने के बावजूद राजपूत कभी उद्वेलित नही होते। इन्हें लगता है अपनी संख्या से ज्यादा ही इन्हें मिला है। राजपूतो के नेता बहुत डिफेंसिव होते हैं। इन्हें लगता है अन्य समाजो के तुष्टिकरण करने से ही इनकी राजनीति सफल हो सकती है क्योंकि राजपूतो की तो आबादी ही नही है। इनके दिमाग मे कभी नही आता कि इतने बड़े राजपूत वोट बैंक को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाए। आम राजपूत भी गरीबी में जीकर भी दूसरों की रक्षा करने की बात करता है। वो अपने समाज को अब भी बड़ा सम्पन्न और ताकतवर समझता है। अपना भला देखने के बजाए दूसरों को बचाने की हास्यास्पद बाते करता है। आदर्शवाद की किसी अलग ही दुनिया में रहता है। भले ही पुरखे आम राजपूत किसान रहे हो लेकिन राजाओं के भाषण सुन सुनकर खुद राजा की तरह व्यवहार करता है। जमीन से कटा रहता है।
सबसे बड़ा फ्लोटिंग वोटर होने के बावजूद राजपूतो को अपने वोट का इस्तेमाल करना ही नही आता। कोर वोटर की तरह व्यवहार करता है लेकिन तब भी अपनी पार्टी पर दबाव नही बना पाते।
सबसे पहले तो जब तक राजपूत समाज को अपनी वास्तविक संख्या का भान नही होगा तब तक कुछ नही हो सकता। अन्य जातियों की आदत रही है अपनी संख्या बढ़ा चढ़ाकर बताने की। इस कारण अब उन जातियों के लोग अपनी संख्या वास्तविकता से भी ज्यादा मान बैठे हैं जिसके कारण भरपूर मिलने पर भी वो लोग संतुष्ट नही होते और हर समय अपनी संख्या से ज्यादा हासिल करने को व्याकुल रहते हैं।
वही हमारे समाज के लोगो के अवचेतन मस्तिष्क में राजपूतो की आबादी कम होने की बात इस तरह समा गई है कि समझाने के बाद भी मानने को तैयार नही होते।
प्रचार कैसे काम करता है और उसका अवचेतन मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका एक उदाहरण देखिए–
पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक गांव है जिसके बारे में दशकों से यह फेमस है कि एशिया का सबसे बड़ा गांव है। इस टाइटल से मीडिया में भी सैकड़ो बार छप चुका है। और दावे किये जाते हैं कि एक लाख की आबादी है इस गांव की जिनमे 90% राजपूत हैं। यह दावा अब 2 लाख से लेकर 3 लाख तक पहुँच जाता है। यह आंकड़े बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। उतनी आबादी के ना केवल पूरे देश में बल्कि उसी क्षेत्र में भी बहुत गांव हैं।लेकिन इसके बावजूद क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति इन आकड़ो पर उंगली नही उठाता। क्योंकि दिमाग में यह घुसा हुआ है कि दुनिया का सबसे बड़ा गांव है इसलिए जो भी संख्या बता दे सही ही लगती है।
लेकिन अब अगर उन्ही लोगो से जो गांव की आबादी 1 लाख और उसमे राजपूत 90% बताते हैं, उनसे उसी विधानसभा में राजपूत वोट की संख्या पूछी जाए तो वो कुल 40 हजार वोट बताते हैं और अहीरों को राजपूतो से ज्यादा बताते हैं क्योंकि अखबार में ऐसा छपा था और मानने के बजाए बहस करने लगते हैं जबकि उस विधानसभा में राजपूतो के ऐसे कई गांव हैं। क्योकि अवचेतन मन में राजपूत वोट कम होने की बात इस तरह समाई हुई है कि अखबार का आंकड़े पर आपत्ति करने की बजाए उसे सच मान लिया जाता है। ऐसे में अगर उस 1 लाख राजपूत वोट वाली सीट पर राजपूतो का टिकट काट किसी और जाती को टिकट मिल जाए तो राजपूतो को ज्यादा आपत्ति भी नही होगी।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। जैसे बलिया राजपूत बाहुल्य के रूप में चर्चित है वहां 3 की जगह 5 लाख भी बोल दो तो भी लोग मान लेंगे। जबकि आजमगढ़ में ज्यादातर ये नही मानने वाले कि राजपूत अहीर के आसपास ही हैं।
इसी तरह राजस्थान में ज्यादातर राजपूत 6% से ज्यादा राजपूत संख्या मानने को तैयार नही होते जबकि वहाँ राजपूताना होने के प्रचार की वजह से मीडिया कहीं ज्यादा राजपूत संख्या बता दे लेकिन इसके बावजूद राजपूत खुद अपनी जनसंख्या कम करके लिखवाते हैं। जबकि सीट वाइज जब वास्तविक संख्या अखबार में बताई जाए तो उसे भी सही मान लेते है लेकिन यह दिमाग नही लगाते कि सीट वाइज जोड़ने पर उनकी आबादी कहीं ज्यादा बैठती है।
इसलिए राजपूत समाज मे राजनीतिक चेतना तभी आएगी जब अपनी ताकत का एहसास होगा और उसके लिए इन राजा महाराजो की मानसिकता को त्यागना पड़ेगा।