Pushpendra Rana ✍️

किसान संगठन लोकतंत्र में दबाव गुट के रूप में काम करते हैं। लेकिन इस तरह के ज्यादातर संगठन किसी ना किसी राजनैतिक दल या ताकत से जुड़े होते हैं और इनका मुख्य उद्देश्य किसानो के हित के लिए लड़ना नही बल्कि अपने अपने राजनितिक आकाओं के फायदे के लिए सरकारो के खिलाफ माहौल बनाना होता है। इस तरह का हर संगठन अपने को पालने वाले राजनितिक आकाओं की सरकार में चुप्पी साध कर रहता है लेकिन विपक्षी दल की सरकार में छोटी से छोटी बात पर हंगामा खड़ा कर सरकार के खिलाफ माहौल बनाते हैं। कुछ संगठन सीधे राजनितिक दलों से नही जुड़े होते लेकिन हर समय विरोध का झंडा बुलंद कर दबाव बना मोटी कमाई करते हैं। भले ही कोई सरकार कितना ही बढ़िया काम कर ले लेकिन इनके लिए मुद्दों की कमी नही रहती। क्योकि किसानी ऐसी चीज है कि मुद्दों की कभी कमी नही होती, किसी भी मुद्दे को लेकर विरोध और प्रदर्शन किया जा सकता है और हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य, आपदा राहत आदि मुद्दे तैयार रहते हैं। राजपूतो के अधिकतर जातिगत संगठनो का भी इसी तरह राजनितिक दलों की दलाली करने का धंधा है। लेकिन उनको राजनितिक दल ज्यादा भाव नही देते।
कुछ समय पहले कांग्रेस और वामपंथी समर्थक किसान संगठनों के बैनर तले एक देशव्यापी किसान आन्दोलन का आगाज किया गया था जिससे विपक्ष की जबरदस्त तरीके से सरकार को पंगु करने की योजना थी। अगर राजनैतिक दल के बैनर तले कोई प्रदर्शन हो तो सरकार उसका दमन कर प्रदर्शनकारियो को अंदर करने में देर नही लगाती है क्योकि तब सिर्फ एक विरोधी दल के कार्यकर्ताओ की बात होती है लेकिन अगर ये ही लोग किसान संगठन के नाम पर प्रदर्शन करें तो सरकार को अत्यधिक सावधानी और धीरज बरतना पड़ता है क्योकि तब बात देश के सबसे बड़े वोट बैंक किसानो की होती है I भले ही प्रदर्शनकारी किसानो के भेस में विरोधी दल के ही लोग हैं लेकिन देश भर की मीडिया में ये ही खबर जाएगी कि सरकार ने किसानो पर लाठीचार्ज किया। उपरोक्त कांग्रेस और वामपंथ समर्थित आन्दोलन इसलिए जल्दी दम तोड़ गया कि इसमें दूध और सब्जिया बर्बाद करने और गुंडागर्दी करने की विडियो मीडिया में फ़ैल गई और लोगो की उतनी सहानुभूति नही मिल पाई लेकिन फिर भी कुछ हद तक यह आन्दोलन किसान के नाम पर देश में माहौल बनाने में सफल हो गया।
बहरहाल इस लेख का मुख्य उद्देश्य पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटो की किसान राजनीती की चर्चा कर एक देशव्यापी क्षत्रिय वर्चस्व वाले किसान संगठन की स्थापना करने पर जोर देना है।
किसान संगठनों का उपयोग सिर्फ राजनितिक दलों और इन सगठनो के नेताओ के व्यक्तिगत स्वार्थो की पूर्ती के लिए ही नही बल्कि जातिगत हित के लिए भी किया जा सकता है। जिसका उदाहरण राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटो ने बखूबी दिया है। पश्चिम उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो यहाँ का महेन्द्र सिंह टिकैत का भारतीय किसान यूनियन देश के सबसे प्रभावशाली किसान संगठनों में गिना जाता था। यूं तो टिकैत कभी अपने खाप की सीट से ही अपने लड़के को विधायक भी नही बना पाया लेकिन जब भी वो किसानो के नाम पर मेरठ comissionary पर अपने समर्थको को साथ लेकर बैठता था तो प्रशासनिक अधिकारियों की तो हिम्मत होती ही नही थी उसे उठाने की बल्कि सरकार के मंत्री मुख्यमंत्री तक उसकी खुशामद में तैयार रहते थे। हालांकि इन प्रदर्शनकारियों में 90% सिर्फ जाट जाती से होते थे और इस किसान यूनियन का 90% प्रभाव सिर्फ जाटो में ही था। अगर टिकैत सीधे जाटो के बैनर तले कोई आन्दोलन करता तो कोई सरकार शायद इतना भाव नही देती लेकिन क्योकि वो किसानो के नाम पर आन्दोलन करता था इसलिए किसी सरकार में उसको नजरअंदाज करने और बलप्रयोग करने की हिम्मत नही होती थी। मजेदार बात यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट की पूरे प्रदेश में मात्र डेड़ % आबादी है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी मात्र 8% आबादी है लेकिन इस किसान यूनियन और जाट जाती की राजनीती को देखकर ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में ये ही लोग किसान हैं। और इलाको में भी बहुसंख्यक आबादी किसानो की है लेकिन ना तो उन इलाको में और ना इस इलाके में अन्य किसान जातिया किसान राजनीती में इतनी सक्रीय हैं। इस कारण पश्चिम उत्तर प्रदेश के 3-4 जिलो के जाट और टिकैत की किसान यूनियन को by default प्रदेश के किसानो की एकमात्र आवाज और रहनुमा बनने का मौका मिल गया।
इसका जाटों ने बखूबी फायदा उठाया। टिकैत और उसके जाट समर्थक मूलतः जातिवादी थे और हैं। खुलकर जाट राजनीती करते हैं। यह किसान यूनियन तब अस्तित्व में आई जब चरण सिंह की विरासत अजित सिंह को ना मिलकर मुलायम को मिल गई जिसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट पचा नही पाए। उसी समय टिकैत के नेतृत्व में शामली के खेड़ी करमू में पहला आन्दोलन हुआ। उसके बाद से लगातार सरकारों के खिलाफ किसी ना किसी मुद्दे पर ये आन्दोलन करते रहे क्योकि कोई भी सरकार जाटो की नही थी। साथ ही टिकैत अजीत सिंह के नेतृत्व में अलग जाट पार्टी बनाने में मदद करता रहा। जिस सरकार में अजीत की पार्टी शामिल होती उसके खिलाफ टिकैत और उसकी यूनियन शांत रहती। क्योकि 90 के दशक के बाद अजीत लगभग हर सत्ताधारी पार्टी के साथ गठबंधन में रहा इसी कारण टिकैत की किसान यूनियन कमजोर होती चली गई। अभी क्योकि एनडीए में अजीत सिंह के लिए कोई जगह नही है और अजीत पूरी तरह भाजपा के विरुद्ध हमलावर है इसलिए ये संगठन किसी ना किसी तरह भाजपा के विरोध में हैं जिसका परिणाम 3 दिन पहले दिल्ली का किसान आन्दोलन था जिसमे जानबूझकर ट्रेक्टरो को ले जाकर बैरीकैडिंग पर चढ़ाई की जिससे पुलिस बलप्रयोग पर मजबूर हो और किसानो पर बलप्रयोग और अत्याचार को मुद्दा बना सकें जिसमे ये लोग काफी हद तक सफल रहे। अगर इसी तरह का प्रदर्शन ये लोग आरएलडी या जाट संगठन के बैनर तले करते तो उल्टा इन्ही को नुकसान होता। जबकि अब सभी किसान और गैर किसान इस गोली काण्ड के लिए अत्याचार के नाम पर सरकार और राजनाथ सिंह को गाली दे रहे हैं। अजीत के राजनितिक वजूद को दोनों गठबन्धनो के सामने साबित करने के लिए किसान यूनियन टिकैत ने किसानो को उकसाया जिसमे कोई मर भी जाता तो इन्हें फायदा ही होता।
कुल मिलाकर जाटों ने किसान राजनीती के आवरण में अपनी राजनीती की है। जाट की बजाए किसान के नाम पर राजनीती करने का इन्हें बेहद फायदा हुआ है क्योकि इससे सरकारों और राजनितिक दलों के सामने मोलभाव करने के लिए इनका प्रभाव क्षेत्र बहुत बढ़ जाता है। टिकैत तो इतना ताकतवर हो गया था कि सिर्फ 3-4 जिलो में प्रभाव होने के बावजूद एक समय देश का सिरमौर किसान नेता इसे ही माना जाने लगा था, केन्द्रीय सरकारे देश के किसानो के सिरमौर नेता के रूप में इसे ही मान्यता देती थीं और WTO जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के कार्यक्रमों तक में इनको भाग लेने के लिए बुलाया जाता था जिसका इन्होने बहुत फायदा उठाया।
अब इनसे राजपूतो की तुलना करें तो राजपूत देश की सबसे बड़ी किसान जाती है। कम से कम 12-13 राज्यों में राजपूतो का अच्छा खासा वजूद है। किसी और किसान जाती के पास इतने राज्यों में मौजूदगी और इतनी संख्या नही है। अगर राजपूतो के वर्चस्व वाला एक देशव्यापी किसान संगठन बनाया जाए तो उसका भारतीय राजनीती में जो प्रभाव हो सकता है उसकी कोई सीमा नही है। इस संगठन के द्वारा राजपूत समाज अपने खुद के फायदों के लिए किसान राजनीती के नाम पर राजनितिक दलों से मोल भाव कर सकता है। यहाँ तक कि पद्मावत जैसे कम जरुरी और गैर राजनितिक मुद्दों तक पर भी किसान के नाम पर indirectly तरीके से ज्यादा बेहतर दबाव बनाया जा सकता है क्योकि किसान के नाम पर प्रदर्शन के लिए कभी भी मुद्दों की कमी नही रहती। राजपूतो के विरोध में काम करने वाली सरकारों पर किसान राजनीती के नाम प्रदर्शनों की चाबुक लटकाई रखी जा सकती है। देश की हर सरकार किसान प्रदर्शनों से डरती है। यू तो राजपूत ही इतनी विशाल जाती है कि इसके लिए अन्य जातियों की जरूरत नही है लेकिन किसान संगठन और राजनीती के नाम पर अन्य जातियों के वोट बैंक के प्रभाव का भी सरकार पर दबाव बनाने में indirectly इस्तेमाल तो किया ही जा सकता है बल्कि किसान के नाम पर अन्य जातियों को वापिस राजपूतो के प्रभाव और नेतृत्व के अधीन भी लाया जा सकता है।
अभी स्थानीय स्तर पर राजपूतो के कुछ एक किसान संगठन सक्रीय हैं जिन्हें सभी राजपूत बहुल राज्यों में विस्तार करना चाहिए। अगर राजपूतो का एक loosely organised देशव्यापी किसान संगठन भी बन गया जिसके नेताओ की सोच और प्रतिबद्धता राजपूत समाज के हितो के प्रति हो तो यह राजपूत राजनीती के लिए बहुत क्रांतिकारी कदम होगा।